
अपने पहले ही भाषण में राजनाथ ने गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को अपने
विवादस्पद बयान के लिए घेरा. हिन्दू आतंकवाद का जिक्र ने भाजपा और आरएसएस
को आक्रमक होने का मौका दे दिया है. इस बात ने एक बार फिर से भारत की
राजनीति को उसी मुकाम पर ला खड़ा किया है जहाँ से वो बीस साल पहले चला था.
शिंदे का बोलना और राजनाथ का विरोध देश की राजनीति को वापस उसी मुद्दे में
उलझा देना चाहती है जहाँ से वो चली थी.
आज जब देश महंगाई से त्रस्त है, भ्रष्टाचार का हरेक स्तर पर बोलबाला है, आर्थिक स्थिति गिर रही है, नौकरियां जा रही है बेरोजगारी बढ़ रही है, ऐसे में फिर से धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता का राग शायद जनता को नहीं भाए. जहाँ एक ओर सरकार अपनी नाकामियों को ढ़कने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है वहीँ भाजपा और दुसरे दल अपने में ही इतने उलझे हुए है कि उन्हें जनता के प्रति अपने दायित्व कि याद ही नहीं रही है.
क्या राजनाथ आकर सबकुछ बदल देंगे? क्या भाजपा अपने पुराने दौर की बाते दोहरा पायेगी? शायद ये सवाल जल्दी में किये जा रहे है. पर दूसरा पहलु ये है कि वक्त काफी कम है राजनाथ के लिए. आम चुनाव आने में अब एक साल से कुछ ही ज्यादा का समय रह गया है और ठीक करने के लिए राजनाथ सिंह के सामने ढेरों मुसीबतें है. ये सही है कि पिछले बार के मुकाबले इस बार राजनाथ ज्यादा परिपक्व राजनीतिज्ञ है पर लगातार 9 राज्यों में होने वाले चुनाव एक चुनौती की तरह मुंह बाए सामने खड़े है.
एक और महत्वपूर्ण चुनौती है गठबंधन बढ़ाने की और साथ ही साथ जो है उसे बचाए रखने की भी. जहाँ भारतीय जनता पार्टी मजबूत नहीं है वहां हर हाल में उसे एक साझीदार चाहिए पर क्या ये काम राजनाथ कर पायेंगे? धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता का कार्ड क्या उन्हें ऐसा करने देगा? जिस विकास के मुद्दे पर गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गठबंधन को राज मिला था वो फिर से पीछे छुट जाएगा? उम्मीद करना चाहिए ऐसा होगा नहीं क्योकि अगर ऐसा हो गया तो देश की जनता अपने को हारी हुई सी महसूस करेगी. जनता को इन मुद्दों से दूर आने में बीस साल का लम्बा इंतज़ार करना पड़ा है.
चुनौतियों के समर में राजनाथ कूद गए है और साफ़-सुथरी छवि के होने के नाते उनसे भारतीय राजनीति को काफी आशाएं है. जनता को भी उम्मीद है कि वो नकारात्मक राजनीति न कर सकारात्मक राजनीति कि राह अपनाएंगे और देश विकास की ही राजनीति करेगा न की घिसे-पिटे और दूर छुट चुके मुद्दों की.
आज जब देश महंगाई से त्रस्त है, भ्रष्टाचार का हरेक स्तर पर बोलबाला है, आर्थिक स्थिति गिर रही है, नौकरियां जा रही है बेरोजगारी बढ़ रही है, ऐसे में फिर से धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता का राग शायद जनता को नहीं भाए. जहाँ एक ओर सरकार अपनी नाकामियों को ढ़कने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है वहीँ भाजपा और दुसरे दल अपने में ही इतने उलझे हुए है कि उन्हें जनता के प्रति अपने दायित्व कि याद ही नहीं रही है.
क्या राजनाथ आकर सबकुछ बदल देंगे? क्या भाजपा अपने पुराने दौर की बाते दोहरा पायेगी? शायद ये सवाल जल्दी में किये जा रहे है. पर दूसरा पहलु ये है कि वक्त काफी कम है राजनाथ के लिए. आम चुनाव आने में अब एक साल से कुछ ही ज्यादा का समय रह गया है और ठीक करने के लिए राजनाथ सिंह के सामने ढेरों मुसीबतें है. ये सही है कि पिछले बार के मुकाबले इस बार राजनाथ ज्यादा परिपक्व राजनीतिज्ञ है पर लगातार 9 राज्यों में होने वाले चुनाव एक चुनौती की तरह मुंह बाए सामने खड़े है.
एक और महत्वपूर्ण चुनौती है गठबंधन बढ़ाने की और साथ ही साथ जो है उसे बचाए रखने की भी. जहाँ भारतीय जनता पार्टी मजबूत नहीं है वहां हर हाल में उसे एक साझीदार चाहिए पर क्या ये काम राजनाथ कर पायेंगे? धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता का कार्ड क्या उन्हें ऐसा करने देगा? जिस विकास के मुद्दे पर गुजरात, बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गठबंधन को राज मिला था वो फिर से पीछे छुट जाएगा? उम्मीद करना चाहिए ऐसा होगा नहीं क्योकि अगर ऐसा हो गया तो देश की जनता अपने को हारी हुई सी महसूस करेगी. जनता को इन मुद्दों से दूर आने में बीस साल का लम्बा इंतज़ार करना पड़ा है.
चुनौतियों के समर में राजनाथ कूद गए है और साफ़-सुथरी छवि के होने के नाते उनसे भारतीय राजनीति को काफी आशाएं है. जनता को भी उम्मीद है कि वो नकारात्मक राजनीति न कर सकारात्मक राजनीति कि राह अपनाएंगे और देश विकास की ही राजनीति करेगा न की घिसे-पिटे और दूर छुट चुके मुद्दों की.
bahut achchha lekh hai